कविता
शनिवार, 4 अक्तूबर 2008
ज़िन्दगी और रेल
समय गुज़र रहा है
जैसे बम्बई की लोकल रेल
आदमी चल रहा है
जैसे धीमी गति की कोई रेल
ज़िन्दगी गुज़र रही है ऐसे
जैसे - प्लेटफोर्म का हो यह खेल
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