हम
रोज़ पूछते हैं
दिन रात पूछते हैं
मन - तू कब समझेगा ?
जबकि
मन सब समझता है
हम ही हैं
जो
समझ समझकर
भी
समझना नहीं चाहते हैं
मन से पूछते रहते हैं
ऐ मन - तू कब समझेगा
मन कहता है
ऐ मानव मैं तो सब समझ रहा हूँ
पर
एक तुम ही हो
जो
समझ समझकर भी
न समझने का नाटक
करते आ रहे हो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें