सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

जिंदगी की रेल

हर बार
एक नयी जगह
होता है धमाका
एक नयी जगह खेला जाता है
आतंक का खेल
फिर भी
ज्यों की त्यों चलती है
ज़िन्दगी की रेल

इस आतंक के कारण
कितने घरों के चिराग बुझ गए
कितनी अबलायें हुईं विधवा
पर
हम बेचारे आम आदमी
क्या कर पाए ?
समाचार सुना, पढ़ा
और भूल गए
न कोई सहानुभूति
न कोई चिंता
सवेरे वही रोज़ का खेल
वही हमारी
जिंदगी की रेल

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